
ट्यूबरक्लोसिस (tuberculosis) की बीमारी एक प्रकार का बैक्टिरीअल इन्फेक्शन है। लेकिन क्या आपने कभी ट्यूबरक्लोसिस के उपचार के बारे में सोचा है। ट्यूबरक्लोसिस (टीबी)रोग का उपचार इतने लंबे समय तक क्यों लेना पड़ता है? जबकि अधिकांश अन्य तरह के इन्फेक्शन एंटीबायोटिक दवाओं से पांच दिनों से लेकर अधिकतम 6 सप्ताह तक के उपचार की छोटी अवधि से ठीक हो जाते हैं। लेकिन टीबी में उपचार की अवधि छह महीने या उससे अधिक ही होती है, और यह कभी भी 6 महीने से कम के लिए नहीं होती है।
शॉर्ट कोर्स उपचार:
हम में से अधिकांश लोग जानते हैं कि ट्यूबरक्लोसिस का उपचार राष्ट्रीय टीबी उन्मूलन कार्यक्रम (ntep) के तहत मुफ्त उपलब्ध है। भारत सरकार द्वारा चिन्हित उपचार केंद्रों पर “DOTS” पद्धति का उपयोग करके उपचार प्रदान किया जाता है।
DOTS = डायरेक्टली अब्ज़र्व्ड ट्रीटमेन्ट – शॉर्ट कोर्स
क्या आप हैरान हैं ? अगर 6 महीने के उपचार को ‘शॉर्ट कोर्स ‘ कहा जाता है, तो लॉन्ग कोर्स उपचार के बारे में क्या ? जी हाँ, कुछ दशकों पहले तक, जब टीबी की बहुत प्रभावी दवा नहीं बनी थी, जो भी दवाएँ उपलब्ध थीं, उन्हें लंबे समय तक लेना पड़ता था, जैसे कि 2 साल से अधिक समय तक ,तभी टीबी की बीमारी बड़ी मुश्किल से ही ठीक हो पाती थी ।
पुराने दिनों की तुलना में (जब टीबी के लिए 2 साल से ज़्यादा का इलाज करवाना पड़ता था), आजकल इलाज की अवधि सिर्फ़ 6 महीने है। फिर भी, आज जब हम ट्यूबरक्लोसिस उपचार की तुलना दूसरे तरह के बैक्टीरियल संक्रमण के उपचार से करते हैं तो सही मायने में इलाज अभी भी काफ़ी लंबा है, लेकिन पुराने दिनों की तुलना में अब यह काफ़ी अल्प अवधि का है।
“ लंबी समस्याएँ = लंबा इलाज ; इन्फेक्शन = छोटा इलाज “.. . ट्यूबरक्लोसिस के लिए यह उक्ति सही नहीं !
जब भी हम बीमार होते हैं, तो बीमारी या तो कम समय की हो सकती है या फिर यह लंबे समय तक रहने वाली बीमारी हो सकती है, कभी-कभी यह जीवन भर चलने वाली समस्या भी हो सकती है। जीवन भर चलने वाली बीमारियों के कई उदाहरण हैं जैसे मधुमेह, हाई.बी.पी. , हृदय रोग और क्रानिक किड्नी फ़ेल्योर इत्यादि ।
अगर हम उपचार पहलुओं को देखें तो इन दीर्घकालिक बीमारियों के लिए लंबे समय तक इलाज की ज़रूरत होती है, उनमें से कईयों में तो जीवन भर के लिए उपचार लेना पड़ता है। परंतु इन्फेक्शन के कारण होने वाली ज़्यादातर बीमारियाँ एक छोटी अवधि के बाद ठीक हो सकती हैं। यह कथन ज़्यादातर संक्रामक बीमारियों के लिए सही है, जैसे कि मान लीजिए अगर किसी को सामान्य सर्दी जुकाम हो जाती है (यह एक प्रकार का वायरल संक्रमण है ) हो जाता है तो, वह इलाज से लगभग पाँच दिनों के भीतर ठीक हो जाती है।
परिदृश्य को देखने से यह समझा जा सकता है कि जीवन में लंबे समय तक रहने वाली बीमारी को प्रायः लंबे समय तक उपचार की आवश्यकता होती है, लेकिन इन्फेक्शन से होने वाली बीमारियाँ उपचार से कम अवधि में ही ठीक हो जाती हैं।
लेकिन टी.बी. रोग (जिसे हिन्दी में तपेदिक रोग/क्षय रोग भी कहा जाता है), जो माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरक्लोसिस नाम के बेक्टीरिया के संक्रमण के कारण होता है, उपरोक्त कथन का अपवाद(exception) है। क्यूंकी एक इन्फेक्शन होने के बाद भी , टी.बी. एक ऐसी बीमारी है, जिसके ठीक होने के लिए लंबे समय तक उपचार की आवश्यकता होती है। वर्तमान समय में ट्यूबरक्लोसिस के उपचार की अवधि 6 महीने से लेकर 2 साल तक होती है, लेकिन किसी भी तरह की टीबी के उपचार का विकल्प 6 महीने से कम समय का नहीं है।
ट्यूबरक्लोसिस के उपचार की इस ख़ासियत का जवाब (एक संक्रामक बीमारी होने के बावजूद भी ठीक होने के लिए लंबे समय तक उपचार की आवश्यकता होती है), जो कि रोग के प्रेरक एजेंट यानी टीबीके बैक्टीरिया में निहित है। यह टीबीबैक्टीरिया की प्रकृति और शरीर में उनके व्यवहार से ही हमें इस लंबे उपचार के पीछे का कारण समझ सकते हैं। ट्यूबरक्लोसिस का बैक्टीरिया अन्य तरह की बैक्टीरिया से अलग है:
1. खास तरह की सेल वॉल कॉम्प्लेक्स(cell wall complex -यानि बैक्टीरिया के सेल की बाहरी सतह)
टीबी बैक्टीरिया में एक असामान्य सी , मोम के जैसी (wax like ), लिपिड-समृद्ध सेल वॉल होती है, जो मुख्य रूप से माइकोलिक एसिड (mycolic acid) से बनी होती है। इसके कारण यह बैक्टीरिया को निम्नलिखित खूबियाँ प्रदान करता है :
- एंटीबायोटिक दवाओं के प्रति प्रतिरोध:- कई एंटीबायोटिक दवाएं इस मोम के जैसे बाहरी कोटिंग के कारण आसानी से भीतर प्रवेश नहीं कर पाती हैं।
- प्रतिकूल वातावरण में जीवित रहना:- यह ऐसेडिक वातावरण, ऑक्सीडेटिव स्ट्रेस और प्रतिरक्षा प्रणाली (immunity) के हमलों का प्रतिरोध कर सकता है, जिसके कारण भी दवाओं का इसके ऊपर प्रभाव कम हो सकता है।
- धीमी पोषक तत्व अवशोषण: इसकी बहुत धीमी वृद्धि दर (विभाजन समय: ई.कोली नाम के एक बैक्टीरिया के लिए केवल 20 मिनट है , वहीं यह ट्यूबरक्लोसिस के बैक्टीरिया के लिए तकरीबन 15-20 घंटे होता है ) में योगदान देता है। इसके कारण यह बैक्टीरिया बहुत धीरे-धीरे पनपता रहता है ।
- टीबी की बीमारी माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस नाम के बैक्टीरिया के कारण होती है, जो बहुत धीरे-धीरे बढ़ता है। अधिकांश एंटीबायोटिक्स दवाएँ तब सबसे प्रभावी होते हैं जब बैक्टीरिया तेजी से विभाजित होते हैं। क्योंकि टीबी बैक्टीरिया धीरे-धीरे बढ़ते हैं, इसलिए उन्हें मारना कठिन होता है और इसी कारण से लंबे समय तक उपचार की आवश्यकता होती है।
⏳ यह धीमी वृद्धि एक प्रमुख कारण है कि जिसके कारण उपचार में अपेक्षाकृत अधिक समय लगता है – एंटीबायोटिक्स दवाएँ जो बैक्टीरिया की कोशिका के विभाजन को लक्षित करते हैं (जैसे आइसोनियाज़िड दवा)। इन दवाओं को प्रभावी होने के लिए बैक्टीरिया को सक्रिय रूप से विभाजित हो कर पनपने की आवश्यकता होती है, तभी यह दवा अपना असर दिखा पाती है ।
2. निष्क्रिय/अव्यक्त टीबी बैक्टीरिया
जब भी टीबी बैक्टीरिया शरीर में प्रवेश करता है, तो यह जरूरी नहीं है कि यह विभाजित हो कर मल्टीपलाई होना शुरू कर दे और हमेशा टीबी की बीमारी कर सके । अधिकांश समय हमारे शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली (immune system) और विभिन्न पर्यावरणीय कारकों (environmental factors ) के कारण बैक्टीरिया अप्रभावी (सुस्त) हो सकते हैं और निष्क्रिय अवस्था को प्राप्त होते हैं।
शरीर में बैक्टीरिया के लिए पर्यावरणीय तनाव जैसे कि कम ऑक्सीजन स्तर होना , और पोषक तत्वों की कमी जैसे कारण भी बैक्टीरिया को निष्क्रिय अवस्था में प्रवेश करवा सकते हैं, तब इस तरह के इन्फेक्शन को टीबी बैक्टीरिया का पर्सिस्टेंट प्रकार (persistor type) भी कहा जाता है।
ये पर्सिस्टेंट बैक्टीरिया मेटाबॉलिक रूप से सक्रिय नहीं होते हैं, इसलिए अधिकांश एंटीबायोटिक्स दवाएँ इन बैक्टीरिया पर प्रभावी नहीं हो पाती हैं क्योंकि एंटीबायोटिक्स दवाएँ बैक्टीरिया के मेटाबॉलिज्म के किसी न किसी चरण (metabolic growth stage) पर ही एक्शन करती हैं।
- पर्सिस्टेंट बैक्टीरिया हफ्तों या महीनों तक “छिपे” रह सकते हैं। परंतु अनुकूल वातावरण मिलने पर टीबी बैक्टीरिया बाद में फिर से सक्रिय हो सकते हैं , जिससे बीमारी होने की प्रोसेस फिर से शुरू हो जाती है, इसलिए उनका उचित तरीके से इलाज किया जाना चाहिए। टीबी की दवाओं का चयन विशेष रूप से इन्ही सब फ़ैक्टर्स को विचार कर किया जाता है ,ताकि वे इन निष्क्रिय पड़े हुए बैक्टीरिया की आबादी के खिलाफ भी बेहतर तरीके से काम कर सकें।
3. मैक्रोफेज सेल्स में बैक्टीरिया का इंट्रासेल्युलर अस्तित्व

जब ट्यूबरकुलोसिस बैक्टीरिया शरीर को संक्रमित करता है, तो यह एक इंट्रासेल्युलर,यानि हमारे शरीर के सेल्स के भीतर अपनी जगह बना सकता है जिसमें यह लंबे समय तक वहाँ जीवित रह सकता है। यह मैक्रोफेज (macrophage) नामक एक विशेष प्रकार की श्वेत रक्त कोशिकाओं (white blood cell ) द्वारा निगल लिया जाता है । कोशिकाओं के अंदर जाने के बाद यह अपने विशेष तंत्र द्वारा इंट्रासेल्युलर ,इस पर होने वाले हमले से बच जाता है और अनिश्चित काल तक निष्क्रिय अवस्था में सेल्स के अंदर ही जीवित रह सकता है।
इस जगह में, यह मेजबान सेल की प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया(Immune reaction) में हेरफेर कर सकता है और प्रतिरक्षा हमलों और कई एंटीबायोटिक दवाओं दोनों से सुरक्षित रह सकता है।
4. ग्रेन्युलोमा का निर्माण -Granuloma formation
ग्रैनुलोमा एक अजीबोगरीब प्रकार की संरचना है जो विभिन्न प्रतिरक्षा कोशिकाओं और उनके द्वारा जनित मलबे के समूह द्वारा बनाई जाती है। शरीर द्वारा ग्रेन्युलोमा विकसित करने का उद्देश्य टीबी बैक्टीरिया को वहीं पर रोकना होता है।
ग्रैनुलोमा के भीतर कुछ बैक्टीरिया कम ऑक्सीजन की आवश्यकता वाली , सुस्त अवस्था (metabolically inactive) में प्रवेश करते हैं, जिसके कारण इन बैक्टीरिया को खतम करने के लिए लंबे समय तक उपचार की आवश्यकता होती है। इन ग्रेन्युलोमा में प्रतिरक्षा कोशिकाओं और उनके स्राव के मलबे से उत्पन्न चीज़ी(cheesy) सामग्री भी होती है और कभी-कभी इसमें कैल्शियम जमा होने के कारण ग्रैनुलोमा सख्त हो जाते हैं। इससे ग्रैनुलोमा की संरचना के अंदर रक्त प्रवाह में बाधा उत्पन्न होती है । रक्त प्रवाह कम होने के कारण , ट्यूबरक्लोसिस बैक्टीरिया को मारने के लिए दी जाने वाली दवाएँ अच्छी तरह से ग्रैनुलोमा में प्रवेश नहीं कर पाती हैं और बैक्टीरिया पर पूर्ण रूप से प्रभावी नहीं हो पाती हैं।
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5. जीवाणु की आबादी में विषमता
ट्यूबरक्लोसिस के एक ही रोगी में, टीबी बैक्टीरिया विभिन्न मेटाबोलिक स्टेज में रह सकता है:
- सक्रिय रूप से विभाजित होने वाली
- धीमी गति से बढ़ने वाली
- निष्क्रिय
- अंतःकोशिकीय- मरीज के शरीर की कोशिकाओं के भीतर
- बाह्यकोशिकीय – मरीज के शरीर की कोशिकाओं के बाहर ,जैसे ग्रैनुलोमा में
सूक्ष्मजीवीय फ़ैक्टर्स | उपचार अवधि पर प्रभाव |
लिपिड से बनी बाहरी सतह | दवाओं के प्रवेश पर असर |
धीमी वृद्धि दर | एंटीबायोटिक के असर करने को प्रभावित करती है |
निष्क्रिय और सुस्त पड़े पर्सिस्टेंट बैक्टीरिया | दवाओं का लंबे समय तक शरीर में रहना आवश्यक होता है |
बैक्टीरिया का शरीर की कोशिका में जीवित रहना | शरीर की प्रतिरोध क्षमता और दवाओं क असर को धोका दे पाना |
ग्रेन्युलोमा का निर्माण | दवाओं के प्रवेश पर असर |
मेटबॉलीक विविधता | एक से अधिक अलग अलग प्रकार की दवाओं की जरूरत |
ट्यूबरक्लोसिस इन्फेक्शन को ठीक करने के लिए दी जाने वाली दवाएँ (Anti TB Medicines) इनमें से कुछ स्टेज पर तभी काम कर सकती हैं जब बैक्टीरिया मेटाबोलिक रूप से सक्रिय हो। इसलिए एक निश्चित समय पर बैक्टीरिया की आबादी का केवल एक हिस्सा ही इन दवाओं से मारा जा सकता है। अन्य स्टेज पर बैक्टीरिया दवाओं के मारक प्रभाव से बच जाते हैं। इसलिए ट्यूबरक्लोसिस बैक्टीरिया के खिलाफ प्रभावी विभिन्न प्रकार की दवाओं को जोड़ कर उपचार तैयार किया जाता है ।